শ্রীশ্রীগুরু-গৌরাঙ্গৌ জয়তঃ



गौरपादपद्मों में प्रीतिरहित अपना पुत्र-शिष्यवर्ग

अद्वैत के द्वारा त्याज्य-

ये तोमार पादपद्म ना करे भजन । तोरे ना मानिले कभु नहे मोर जन ।। १७३ ।।

ये तोमारे भजे प्रभु से मोर जीवन । ना पारौं सहिते मुजि तोमार लंघन ।। १७४ ।।

यदि मोर पुत्र हय, हय वा किंकर । 'वैष्णवापराधी' मुजि ना देखौं गोचर ।। १७५ ।।

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अनुवाद

(१७३ - १७५)अनु.-जो आपके चरणकमलो का भजन नहीं करता है, जो आपको नहीं मानता है, वह कभी मेरा भक्त नहीं हो सकता। हे प्रभु! जो आपका भजन करता है, वह मेरा जीवन है। आपका उल्लंघन किया जाना मैं सहन नहीं कर सकता। भले ही मेरा पुत्र हो, अथवा मेरा किंकर, यदि वह वैष्णवों के चरणों में अपराधी हो जाए, तो मैं उसका मुँह देखना नहीं चाहता।

गौडीय भाष्य

(१७३) गौः भाः- हे विश्वम्भर, मैं कभी भी किसी व्यक्ति को भी अपना निजी जन कहकर उसका परिचय प्रदान नहीं करूँगा-आपकी चरण-सेवा में जिनका सभी प्रकार से प्रीतिभाव नहीं है; मैं उन अधस्तन पुत्रों एवं शिष्यों का सभी प्रकार से परित्याग करने के लिए प्रस्तुत हूँ। श्रीअद्वैत-वंश में एवं उस वंश के लोगों के शिष्यवर्ग में अभी भी अद्वैत के त्याज्य-पुत्रत्व एवं त्याज्य-शिष्यत्व का विचार गौड़ीय वैष्णव-जगत् सदैव करता रहता है। श्रीअद्वैत-प्रभु की भविष्यवाणी सफल हुई है। अद्वैत-प्रभु के सभी अन्तरंग शिष्यों एवं अधस्तनजनों ने गदाधर पण्डित का आनुगत्य स्वीकार किया था। अद्वैत के विरोधी पुत्रों एवं शिष्यों ने गदाधर पण्डित गोस्वामी के विचारों को स्वीकार नहीं किया एवं वे यह नहीं जान सके कि, वे ही श्रीगुरुपादपद्म हैं।

(१७४) गौः भाः- महाप्रभु को भक्तरूप में अंगीकार करने के कारण मूढ़ अद्वैतवादीगण विश्वम्भर को विषय-विग्रह न मानकर आश्रय-विग्रह मानते हैं। इससे विश्वम्भर की मर्यादा लंघित होती है एवं अपनी बुद्धि भ्रष्ट होने के कारण विष्णु-वंशी बनने की अवैध चेष्टा करने से उन लोगों के लिए त्याज्यवंश एवं त्याज्य शिष्य के रूप में परिचित होना मात्र शेष रह जाता है। चैतन्य के अकृत्रिम (निष्कपट) सेवकगण ही परम भक्त हैं। महाप्रभु के निज-सेवक अद्वैत- प्रभु को जीवन-सदृश प्रिय हैं। जो व्यक्ति विषय- विग्रह श्रीचैतन्यदेव की सेवा छोड़कर अपने आप तुच्छ स्वार्थ-पोषण के लिए अद्वैत की महिमा को स्थापित करते हैं, वे भगवान् के अनुग्रह-लाभ से सदैव वंचित होकर आत्मभरी (अपना बड़प्पन दिखाना) दाम्भिक एवं प्रतिष्ठाशा-परायण हो जाते हैं। अभी भी कोई-कोई अद्वैत-वंश का परिचय देकर शुद्धभक्त के द्वारा किये गये शुद्धाभक्ति के अनुष्ठान को प्रतिष्ठाशा कहकर स्थापित करने का यत्न करते हैं। इससे उन लोगों की अवैध दांभिकता मात्र प्रकाशित होती है। उस प्रकार के दांभिकगण भक्ति के स्वरूप को बिना समझे अपने आपको विष्णु-वंशी एवं उस वंश के दासाभिमानी जनों को वैष्णव समझकर प्रतिष्ठाशा रूप सागर के अतल तल में निमग्न हो जाते हैं; अद्वैत प्रभु उन लोगों का अपराध क्षमा करके उन्हें सद्बुद्धि प्रदान करें, यही शुद्धभक्त-जगत् का एकमात्र प्रार्थनीय विषय है।

(१७५) गौः भाः- श्रीअद्वैत के तीनों पुत्रों एवं केवल नाम से बने कुछ शिष्यों के श्रीचैतन्यदेव एवं उनके शुद्धदासों के प्रति अपराध-विशिष्ट होने पर अद्वैत प्रभु ने उन लोगों के साथ अपना सम्पर्क छिन्न कर लिया एवं उन्हें कृपा से वंचित कर दिया, इसकी जानकारी श्रीअद्वैत प्रभु की उक्ति से ही मिलती है। उनके प्रकटकाल में एवं उस समय से वर्तमान काल तक उनके त्याज्य-पुत्रों एवं उन लोगों के अधस्तन शिष्य-सम्प्रदाय के साथ श्रीअद्वैत एवं श्रीचैतन्यदेव का कोई सम्बंध है ही नहीं। अभी भी वे अपने अवैष्णव परिचय का अधिक सम्मान करते हैं।

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